भारत में आक्रामक प्रजातियों द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ : कानूनों और नीतियों को एकीकृत करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण
नई दिल्ली : भारत अद्वितीय और अमूल्य वनस्पतियों व जीवों से भरपूर विविध पारिस्थितिकी तंत्र की भूमि है। लेकिन, यह समृद्ध जैव विविधता आक्रामक प्रजातियों के रूप में बढ़ते खतरे का सामना कर रही है और यह ख़तरा स्थलीय और जलीय दोनों वातावरणों में मौजूद है। ये विदेशी प्रजातियां अक्सर व्यापार या मानवीय गतिविधियों के माध्यम से यहाँ पहुंचतीं हैं; उन्हीं संसाधनों का उपयोग करतीं हैं, जो स्वदेशी प्रजातियों के लिए हैं; नाजुक पारिस्थितिक संतुलन को बाधित करतीं हैं और गंभीर आर्थिक तथा पर्यावरणीय खतरे पेश करतीं हैं। हालाँकि भारत सरकार ने आक्रामक प्रजातियों से निपटने के लिए सक्रियता के साथ विभिन्न उपाय शुरू किए हैं, लेकिन उनके प्रभावी प्रबंधन में कई बाधाएँ मौजूद हैं। इन बाधाओं में व्यापक कानूनी व्यवस्था का अभाव, अपर्याप्त जन-जागरूकता तथा आपसी समन्वय एवं अनुसंधान और जोखिम मूल्यांकन की कमी शामिल हैं। समय की मांग है कि आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाए, ताकि इन चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके और भारत की प्राकृतिक विरासत की रक्षा की जा सके। इस दृष्टिकोण में निम्नलिखित महत्वपूर्ण घटक शामिल किये जाने चाहिए।
कानून और नीति
आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन के लिए एक व्यापक कानूनी संरचना की आवश्यकता है, ताकि एक स्पष्ट और एकीकृत रणनीति तैयार की जा सके। इस व्यवस्था में रोकथाम और नियंत्रण से लेकर पुनर्स्थापना और जन-जागरूकता से जुड़े सभी मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए।
रोकथाम
आक्रामक प्रजातियों के यहाँ जड़ जमाने और इनके प्रसार को रोकने के लिए प्रारंभिक पहचान और त्वरित जवाबी कार्रवाई (ईडीआरआर) व्यवस्था को विस्तार देना महत्वपूर्ण है। नयी आक्रामक प्रजातियों के प्रवेश को रोकने के लिए बंदरगाहों और सीमाओं पर कठोर संगरोध उपाय और निरीक्षण नियम अपरिहार्य हैं।
नियंत्रण
एक बार जब आक्रामक प्रजातियाँ अपनी जड़ें जमा लेती हैं, तो उनकी आबादी और उनके प्रभावों को कम करने के लिए प्रभावी नियंत्रण उपाय आवश्यक हो जाते हैं। इन उपायों में प्रजातियों का उन्मूलन, रासायनिक उपचार तथा जैविक नियंत्रण विधियाँ शामिल की जा सकतीं हैं।
पुनर्स्थापना
आक्रामक प्रजातियों के सफल नियंत्रण के बाद, प्रभावित पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिए। इसमें स्वदेशी वनस्पतियों की पुनर्स्थापना, देशी प्रजातियों का फिर से रोपण और पारितंत्र गुणवत्ता में वृद्धि शामिल हो सकती है।
जन-जागरूकता और शिक्षा
समुदायों को आक्रामक प्रजातियों से उत्पन्न खतरों तथा निवारक और नियंत्रण उपायों के महत्व के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। इसे हासिल करने के लिए जन जागरूकता अभियान, स्कूलों में शैक्षिक पहल और अन्य आउटरीच कार्यक्रमों की आवश्यकता है।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग
आक्रामक प्रजातियों की सीमा-पार प्रकृति को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बहुत महत्वपूर्ण है। भारत वैश्विक सहयोग और समझौतों में सक्रियता से भाग लेता है, जिनसे ज्ञान और सर्वोत्तम तौर-तरीकों के आदान-प्रदान एवं क्षेत्रीय तथा वैश्विक समाधानों के विकास में सुविधा मिलती है।
आक्रामक प्रजाति प्रबंधन के लिए भारत के कानून और नीतियां
- जैविक विविधता अधिनियम, 2002
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986
- विनाशकारी कीड़े और कीट अधिनियम, 1914 (संशोधन सहित)
- पादप संगरोध (भारत में आयात का विनियमन) आदेश, 2003
- पशुधन आयात अधिनियम, 1898 (पशुधन आयात (संशोधन) अध्यादेश, 2001 सहित)
- राष्ट्रीय समुद्री कृषि नीति
इन कानूनों और विनियमों में आक्रामक प्रजातियों के नियंत्रण और प्रबंधन के विविध पहलू शामिल हैं। इन पहलुओं में प्रजातियों की शुरुआत और प्रसार की रोकथाम, जड़ जमा चुकीं आक्रामक प्रजातियों का नियंत्रण, पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्स्थापना और जन-जागरूकता अभियान आदि शामिल हैं। तथापि, आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन के लिए समर्पित व व्यापक कानूनी व्यवस्था की अनिवार्य आवश्यकता मौजूद है। इस तरह की व्यवस्था; रोकथाम और नियंत्रण से लेकर पुनर्स्थापना और सार्वजनिक शिक्षा तक के मुद्दों के सभी पहलुओं का समाधान करते हुए एक सुसंगत और एकीकृत रणनीति प्रदान करेगी।
स्थलीय और जलीय आक्रामक प्रजातियों को शामिल करने और समस्या के मानवीय आयाम को महत्त्व देने पर आधारित एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। कानूनी और नीतिगत व्यवस्था को मजबूत करते हुए, भारत अपनी प्राकृतिक विरासत की रक्षा कर सकता है। ऐसा करने पर, देश आक्रामक प्रजातियों से उत्पन्न पारिस्थितिक और आर्थिक खतरों को प्रभावी ढंग से कम कर सकता है।